Saturday, February 22, 2014

कड़िया मुंडा की सादगी: दिल्‍ली में लोकसभा और गांव जाकर कुदाल चलाते हैं

राजनेताओं की सादगी की चर्चा जब भी होती है तो आमतौर पर अरविंद केजरीवाल से शुरू होती है और मनोहर पर्रीकर (गोवा के मुख्यमंत्री), माणिक सरकार (त्रिपुरा के मुख्यमंत्री) और ममता बनर्जी (प. बंगाल की मुख्यमंत्री) तक जाकर खत्म हो जाती है। इस बीच छूट जाता है एक ऐसा नाम, जिनकी हैसियत और सादगी के आगे शायद उक्त तीनों फीके पड़ जाएं।

हम बात कर रहे हैं लोकसभा के उपाध्यक्ष कड़िया मुंडा की। सात बार सांसद, चार बार केंद्रीय मंत्री और दो बार विधायक रहे कड़िया का जीवन आज के राजनेताओं के लिए एक मिसाल है। व्यक्तिगत जीवन बिल्कुल वैसा ही जैसा अब से चार दशक पहले था, जब वह पहली बार सांसद चुने गए थे; झारखंड के आदिवासियों के संसद में अकेले प्रतिनिधि। आज भी गांव आते हैं तो वैसे ही खेतों में हल-कुदाल चलाते हैं, तालाब में नहाते हैं। नक्सली हिंसा के लिए देश के सबसे खतरनाक खूंटी जिले में मामूली सुरक्षा के साथ घूमते हैं और इसका डंका भी नहीं पीटते, केजरीवाल की तरह।

कहते हैं राजनीति काजल की कोठरी है, पर कड़िया के दामन पर कोई दाग नहीं लगा। राजनीतिक जीवन में अटल-आडवाणी के नजदीकी रहे, लेकिन उनसे कदम मिलाने की कोशिश कड़िया ने कभी नहीं की। हमेशा अपनी हद में रहकर सक्रिय रहना कडिय़ा की खासियत है। उनके बाद आदिवासी अस्मिता के नाम पर राजनीति शुरू करने वाले कई राजनेता कहां से कहां पहुंच गए, पर कड़िया दौलत-शोहरत की अंधी दौड़ से दूर रहे।

प्रचार-प्रसार से मीलों दूर रहने वाले लोकसभा उपाध्यक्ष की जिंदगी में झांकने की कोशिश की है दैनिकभास्कर.कॉम ने (http://www.bhaskar.com/article-ht/c-181-1134532-NOR.html?seq=1)

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