Sunday, July 7, 2013

गाँधी का पाखंड और तानाशाही

गाँधी का पाखंड और तानाशाही

"सादा जीवन उच्च विचार" का दम भरने वाले मूर्खात्मा गाँधी वास्तव में पाखंड और तानाशाही की मिसाल थे. उनके पाखंड के एक नहीं अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं. कभी गाय को पवित्र मानने वाले गाँधी ने किसी मूर्ख आदमी के कहने पर दूध एकदम छोड़ दिया था और जिंदगी भर दूध न पीने का संकल्प किया था. लेकिन जब इसके बिना काम न चला तो गाय या भैंस की जगह बकरी का दूध पीना शुरू कर दिया. यह पाखंड नहीं तो क्या है? अगर दूध ही पीना था तो अत्यंत गुणकारी गोदुग्ध पीना चाहिए था.
इसी तरह वे गरीबी में रहने का पाखंड करते थे. वे गरीबों की तरह रेल में तीसरी श्रेणी में यात्रा करते थे. लेकिन उनके लिए उनके चेले पूरा डिब्बे पर कब्ज़ा कर लेते थे. इस गुंडागर्दी का गाँधी विरोध नहीं करते थे और यह मान लेते थे कि उनके लिए जनता ने खुद डिब्बा खाली छोड़ दिया है. वे बकरी का दूध पीते थे, इसलिए हर जगह बकरी उनके साथ ही जाती थी. वे इस बात की चिंता नहीं करते थे कि इस पर कितना खर्च होगा. सरोजिनी नायडू ने एक बार स्पष्ट स्वीकार किया था कि गाँधी को गरीब बनाये रखने में हमें बहुत धन खर्च करना पड़ता है.
स्वभाव से गाँधी अधिनायकवादी थे. अपनी बात किसी भी प्रकार से सबसे मनवा लेते थे. उनके इस तानाशाही स्वभाव को देखकर ही एक बार किसी विदेशी विद्वान ने कहा था कि यदि इस आदमी के हाथ में कभी सत्ता आई, तो यह इतिहास का सबसे नृशंस और निकृष्ट तानाशाह सिद्ध होगा. गाँधी की इस प्रवृति का स्वाद कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों को बार-बार चखना पड़ता था. हर आन्दोलन को वे चरम पर पहुँचने के बाद भी उद्देश्य पूरा होने से पहले ही वापस ले लेते थे. इसी कारण कांग्रेस द्वारा चलाये गए सारे आन्दोलन बुरी तरह असफल रहे.
एक बार कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में नेताजी सुभाषचंद्र बोस भारी बहुमत से जीत गए और गाँधी के उम्मीदवार प. सीतारामैय्या बुरी तरह हार गए. गाँधी इस हार को नहीं पचा सके. उन्होंने इसे व्यक्तिगत हार माना और नेताजी के प्रति असहयोग का रवैय्या अपना लिया. उनके चमचे कई नेताओं जैसे नेहरु, आजाद आदि ने भी ऐसा ही किया. मजबूर होकर नेताजी को अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देना पड़ा और वे कांग्रेस को भी छोड़ गए. गाँधी की तानाशाही इस घटना से सबके सामने नंगी हो गयी.
गाँधी की इस मूर्खता का क्या परिणाम हुआ इसे हम आगे देखेंगे.


गाँधी की अहिंसा ओर सत्यता भारत के इतहास का सबसे बड़ा झूठ है...अंग्रजों ने इस महा झूठ को पाला पोसा ..इसकी आड़ में लाखों कत्ल किए..भरपूर हिंसा की...आज भी गो माँस के हज़ारों कारखाने चल रहें हैं..क्या किया गाँधी / नेहरू ने इनको बंद करवाने के लिए ??.

यह हमारे देश के लिए बड़े शर्म की बात है, की देश एक ऐसे आदमी को राष्ट्रपिता का सम्मान दे रहा है, जो इस लायक बिल्कुल भी नही है | मेरे ख्याल से गाँधी को तो राष्ट्रशर्म कहना चाहिए,

देश की आज़ादी के लिए आख़िर श्री मोहनदास करमचंद गाँधी जी का ऐसा कितना बड़ा योगदान है की ...नेताजी सुभाषचंद्र बोस, शहीदे आज़म भगत सिंह, अमर शाहिद अशफ़ाक उल्ला ख़ान, रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर "आज़ाद" , उधम सिंह, राजगुरु, सुखदेव, ला,बॉल पाल, दादाभाई नौरोजी और ऐसे बड़े-2 नाम ..... इन सब नामो को "एकसाथ मिला कर भी" उतनी ख़बरे नही बनती जितनी अकेले महात्मा गाँधी जी और नेहरू जी के नामो से बन जाते है ?? .... क्या "देश के स्वतंत्रता संग्राम" नाम की फिल्म के हीरो गाँधी नेहरू और ये बाकी सारे नाम "एक्सट्रा" कलाकार ?? ध्यान रहे की मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की किताब "इंडिया विन्स फ्रीडम" के कुछ पेज इसलिए प्रकाशित नही किए गये थे क्योकि शायद कथित तौर पर उनकी गाँधी जी या नेहरू जी से असहमति थी...... आख़िर नमक बना कर क़ानून तोड़ने के अलावा गाँधी जी की कौन सी बड़ी उपलब्धि गिनाने लायक है ?? आख़िर जिस शख्श ने "देश की गुलामी के समय मे भी" अपनी जिंदगी के 21 साल रंगभेदी दक्षिण अफ्रीका मे आराम से गुज़ारे हो उस शख़्श को सोची समझी कपाट नीति के चलते महिमा मंडित करना क्या सही था ?? क्या कोई गाँधी समर्थक बता पाएगा ?

अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ गोली काण्ड (1919) से समस्त देशवासी आक्रोश में थे तथा चाहते थे कि इस नरसंहार के खलनायक जनरल डायर पर अभियोग चलाया जाए। गाँधी जी ने भारतवासियों के इस आग्रह को समर्थन देने से मना कर दिया।
भगत सिंह व उसके साथियों के मृत्युदण्ड के निर्णय से सारा देश क्षुब्ध था व गाँधी जी की ओर देख रहा था कि वह हस्तक्षेप कर इन देशभक्तों को मृत्यु से बचाएं, किन्तु गाँधी जी ने भगत सिंह की हिंसा को अनुचित ठहराते हुए जनसामान्य की इस माँग को अस्वीकार कर दिया। क्या आश्चर्य कि आज भी भगत सिंह वे अन्य क्रान्तिकारियों को आतंकवादी कहा जाता है।
 भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को 24 मार्च 1931 को फांसी लगाई जानी थी, सुबह करीब 8 बजे। लेकिन 23 मार्च 1931 को ही इन तीनों को देर शाम करीब सात बजे फांसी लगा दी गई और शव रिश्तेदारों को न देकर रातोंरात ले जाकर ब्यास नदी के किनारे जला दिए गए। असल में मुकदमे की पूरी कार्यवाही के दौरान भगत सिंह ने जिस तरह अपने विचार सबके सामने रखे थे और अखबारों ने जिस तरह इन विचारों को तवज्जो दी थी, उससे ये तीनों, खासकर भगत सिंह हिंदुस्तानी अवाम के नायक बन गए थे। उनकी लोकप्रियता से राजनीतिक लोभियों को समस्या होने लगी थी। उनकी लोकप्रियता महात्मा गांधी को मात देनी लगी थी। कांग्रेस तक में अंदरूनी दबाव था कि इनकी फांसी की सज़ा कम से कम कुछ दिन बाद होने वाले पार्टी के सम्मेलन तक टलवा दी जाए। लेकिन अड़ियल महात्मा ने ऐसा नहीं होने दिया। चंद दिनों के भीतर ही ऐतिहासिक गांधी-इरविन समझौता हुआ जिसमें ब्रिटिश सरकार सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा करने पर राज़ी हो गई। सोचिए, अगर गांधी ने दबाव बनाया होता तो भगत सिंह भी रिहा हो सकते थे क्योंकि हिंदुस्तानी जनता सड़कों पर उतरकर उन्हें ज़रूर राजनीतिक कैदी मनवाने में कामयाब रहती। लेकिन गांधी दिल से ऐसा नहीं चाहते थे क्योंकि तब भगत सिंह के आगे इन्हें किनारे होना पड़ता।
 मोहम्मद अली जिन्ना आदि राष्ट्रवादी मुस्लिम नेताओं के विरोध को अनदेखा करते हुए 1921 में गान्धी ने खिलाफ़त आन्दोलन को समर्थन देने की घोषणा की। तो भी केरल के मोपला में मुसलमानों द्वारा वहाँ के हिन्दुओं की मारकाट की जिसमें लगभग 1500 हिन्दु मारे गए व 2000 से अधिक को मुसलमान बना लिया गया। गाँधी जी ने इस हिंसा का विरोध नहीं किया, वरन् खुदा के बहादुर बन्दों की बहादुरी के रूप में वर्णन किया
1926 में आर्य समाज द्वारा चलाए गए शुद्धि आन्दोलन में लगे स्वामी श्रद्धानन्द जी की हत्या अब्दुल रशीद नामक एक मुस्लिम युवक ने कर दी, इसकी प्रतिक्रियास्वरूप गाँधी जी ने अब्दुल रशीद को अपना भाई कह कर उसके इस कृत्य को उचित ठहराया व शुद्धि आन्दोलन को अनर्गल राष्ट्र- विरोधी तथा हिन्दु-मुस्लिम एकता के लिए अहितकारी घोषित किया
 कॉंग्रेस के त्रिपुरा अधिवेशन में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को बहुमत से कॉंग्रेस अध्यक्ष चुन लिया गया किन्तु गान्धी पट्टभि सीतारमय्या का समर्थन कर रहा था, अत: सुभाष बाबू ने निरन्तर विरोध व असहयोग के कारण पदत्याग कर दिया
 लाहोर कॉंग्रेस में वल्लभभाई पटेल का बहुमत से चुनाव सम्पन्न हुआ किन्तु गान्धी की जिद के कारण यह पद जवाहरलाल नेहरु को दिया गया।
14-15 जून, 1947को दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय कॉंग्रेस समिति की बैठक में भारत विभाजन का प्रस्ताव अस्वीकृत होने वाला था, किन्तु गान्धी ने वहाँ पहुंच प्रस्ताव का समर्थन करवाया। यह भी तब जबकि उन्होंने स्वयं ही यह कहा था कि देश का विभाजन उनकी लाश पर होगा।
 मोहम्मद अली जिन्ना ने गान्धी से विभाजन के समय हिन्दु मुस्लिम जनसँख्या की सम्पूर्ण अदला बदली का आग्रह किया था जिसे गान्धी ने अस्वीकार कर दिया
जवाहरलाल की अध्यक्षता में मन्त्रीमण्डल ने सोमनाथ मन्दिर का सरकारी व्यय पर पुनर्निर्माण का प्रस्ताव पारित किया, किन्तु गान्धी जो कि मन्त्रीमण्डल के सदस्य भी नहीं थे ने सोमनाथ मन्दिर पर सरकारी व्यय के प्रस्ताव को निरस्����� करवाया और 13 जनवरी 1948 को आमरण अनशन के माध्यम से सरकार पर दिल्ली की मस्जिदों का सरकारी खर्चे से पुनर्निर्माण कराने के लिए दबाव डाला।
 पाकिस्तान से आए विस्थापित हिन्दुओं ने दिल्ली की खाली मस्जिदों में जब अस्थाई शरण ली तो गान्धी ने उन उजड़े हिन्दुओं को जिनमें वृद्ध, स्त्रियाँ व बालक अधिक थे मस्जिदों से से खदेड़ बाहर ठिठुरते शीत में रात बिताने पर मजबूर किया।
 22 अक्तूबर 1947 को पाकिस्तान ने काश्मीर पर आक्रमण कर दिया, उससे पूर्व माउँटबैटन ने भारत सरकार से पाकिस्तान सरकार को 55 करोड़ रुपए की राशि देने का परामर्श दिया था। केन्द्रीय मन्त्रीमण्डल ने आक्रमण के दृष्टिगत यह राशि देने को टालने का निर्णय लिया किन्तु गान्धी ने उसी समय यह राशि तुरन्त दिलवाने के लिए आमरण अनशन किया- फलस्वरूप यह राशि पाकिस्तान को भारत के हितों के विपरीत दे दी गयी।
.गाँधी ने गौ हत्या पर पर्तिबंध लगाने का विरोध किया
द्वितीया विश्वा युध मे गाँधी ने भारतीय सैनिको को ब्रिटेन का लिए हथियार उठा कर लड़ने के लिए प्रेरित किया, जबकि वो हमेशा अहिंसा की पीपनी बजाते है.
 क्या ५००० हिंदू की जान से बढ़ कर थी मुसलमान की ५ टाइम की नमाज़? विभाजन के बाद दिल्ली की जमा मस्जिद मे पानी और ठंड से बचने के लिए ५००० हिंदू ने जामा मस्जिद मे पनाह ले रखी थी...मुसलमानो ने इसका विरोध किया पर हिंदू को ५ टाइम नमाज़ से ज़यादा कीमती अपनी जान लगी.. इसलिए उस ने माना कर दिया. .. उस समय गाँधी बरसते पानी मे बैठ गया धरने पर की जब तक हिंदू को मस्जिद से भगाया नही जाता तब तक गाँधी यहा से नही जाएगा....फिर पुलिस ने मजबूर हो कर उन हिंदू को मार मार कर बरसते पानी मे भगाया.... और वो हिंदू--- गाँधी मरता है तो मरने दो ---- के नारे लगा कर वाहा से भीगते हुए गये थे.
 सन् 1938 में सुभाष चन्द्र बोस बोस कांग्रेस के अध्यक्ष हुए। अध्यक्ष पद के लिए गांधी जी ने उन्हें चुना था और कांग्रेस का यह रवैया था कि जिसे गांधी जी चुन लेते थे वह अध्यक्ष बन ही जाता था क्योंकि हमने सुना है कि जो भी अध्यक्ष बनता था वह वास्तव में 'डमी' होता था, असली अध्यक्ष तो स्वयं गांधी जी होते थे और चुने गए अध्यक्ष को उनके ही निर्देशानुसार कार्य करना पड़ता था।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजों की कठिनायों को मद्देनजर रखते हुए सुभाष चन्द्र बोस चाहते थे कि स्वतन्त्रता संग्राम को अधिक तीव्र गति से चलाया जाए किन्तु गांधी जी को उनके इस विचार से सहमत नहीं थे। परिणामस्वरूप बोस और गांधी के बीच मतभेद पैदा हो गया और गांधी जी ने उन्हें कांग्रेस के अध्यक्ष पद से हटाने के लिए कमर कस लिया।
गांधी जी के विरोध के बावजूद भी कांग्रेस के सन् 1939 के चुनाव में सुभाष चन्द्र बोस फिर से चुन कर आ गए। चुनाव में गांधी जी समर्थित पट्टाभि सीतारमैया को 1377 मत मिले जबकि सुभाष चन्द्र बोस को 1580। गांधी जी ने इसे पट्टाभि सीतारमैया की हार न मान कर अपनी हार माना।
गांधी जी तथा उनके सहयोगियों के व्यवहार से दुःखी होकर अन्ततः सुभाष चन्द्र बोस ने 29 अप्रैल, 1939 को कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया।
इस प्रतिक्रियात्मक लेख का उद्देश्य ऐतिहासिक घटनाक्रमों का विश्लेषण करते हुए गांधीजी को उनके संघर्षों के लिए योग्य सम्मान देने के साथ -साथ दूसरे पक्ष पर दृष्टि डालना है जिसकी अनभिज्ञता मे हम कई बार अन्य क्रांतिकारियों के योगदान को या तो उपेक्षित कर जाते हैं अथवा उनका श्रेय किसी और को दे बैठते हैं।
जहां तक गांधी जी के सरदार भगत सिंह की फांसी के विषय पर रुख का प्रश्न है यह विषय इतिहास मे निश्चित रूप से मतभेद रखता है, कुछ इतिहासकार मानते हैं कि गांधीजी ने अपनी ओर से भगत सिंह व साथियों को बचाने के लिए पूर्ण प्रयास किया किन्तु कुछ का विचार इससे पूर्णतः विपरीत है। इस विषय को इतिहास मे खँगालने के लिए हमे गांधी-इरविन समझौते से ही शुरुआत नहीं करनी चाहिए जैसा कि कुछ लोग करते हैं बल्कि कुछ पहले की घटनाओं तक पहुंचना आवश्यक है। गांधी जी ने भगत सिंह को बचाने के लिए लॉर्ड इरविन से बातचीत की इसके प्रमाण हैं, किन्तु गांधी जी द्वारा भगत सिंह व अन्य क्रांतिकारियों को आतंकवादी व पथभ्रमित कहना भी छिपा नहीं है। गांधीजी के सबसे करीबी नेहरू अँग्रेजी भाषा व सभ्यता में अधिक श्रद्धा रखने के कारण इन क्रांतिकारियों को फ़ासिस्ट (फासीवादी) कहते थे। भगत सिंह की फांसी का आदेश होने से पूर्व ही गांधीजी ने भगत सिंह का पक्ष लिया हो ऐसा बिलकुल नहीं है। बाद मे गांधी जी ने इरविन के साथ जो पत्राचार किया उसके पीछे गांधी जी की पूर्ण निष्ठा थी ऐसा स्वीकार करने के लिए किन्हीं अंग्रेज़ अधिकारियों की टिपपड़ी मात्र आधार नहीं हो सकती क्योंकि अपमानपूर्ण बाते बोलना अंग्रेजों की आदत थी। अवज्ञा आंदोलन के समय अङ्ग्रेजी स्टेट्समेन अखबार ने कहा था जब तक डोमिनियन स्टेट्स नहीं मिल जाता गांधी समुद्र का पानी उबाल सकते हैं
 यह स्वाभाविक है कि जो गांधी जी भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को उग्रवादी आतंकवादी व भटका हुआ कहते थे उनकी उन क्रांतिकारियों के प्रति विशेष श्रद्धा नहीं थी। THE TRAIL OF BHAGAT SINGH पुस्तक के लेखक ए जी नूरानी का विस्तृत विश्लेषण के बाद निष्कर्ष है गांधी जी के भगत सिंह की सजा माफी के पक्ष में किए गए प्रयास आधे दिल से थे। गांधीजी ने इरविन से भगत सिंह की सजा कम किए जाने की वकालत की अथवा माफी की, यह भी स्पष्ट नहीं है किन्तु इतना तो स्पष्ट है कि गांधीजी ने जो भी चिट्ठियाँ लिखी वे तब लिखीं जब पूरे देश मे भगत सिंह के पक्ष में क्रान्ति की लहर दौड़ चुकी थी तथा गांधी एवं कॉंग्रेस पर, चूंकि अंग्रेजों से समझौतों की चाभी इन्हीं के हाथ मे रहती थी, भगत सिंह की फांसी माफी को लेकर भारी दबाब था। अतः उन कथित उग्रवादियों के लिए प्रयास तभी शुरू हुए। ब्रिटिश गवर्नमेंट की confidential intelligence bureau रिपोर्ट (1917-1936) भगत सिंह की उस समय की लोकप्रियता के विषय मे कहती है कि उस समय भगत सिंह ने गांधीजी को मुख्य राजनैतिक किरदार की भूमिका से बाहर कर दिया था। इससे भगत सिंह के लिए देश मे उमड़े समर्थन एवं काँग्रेस व गांधी जी पर, जिन्होंने इरविन समझौता उसी समय किया था, जनता के भारी दबाब का अनुमान लगाया जा सकता है। इतिहासकारों के अपने अपने विवेचन हैं किन्तु मेरा सीधा प्रश्न यह है कि यदि गांधीजी जनता की भावनाओं के उबाल की कद्र करते हुए वास्तव मे पूर्ण हृदय से भगत सिंह को बचाना चाहते थे तो ठीक 18 दिन पहले इरविन समझौता क्यों कर लिया? परिस्थितियो का हवाला देने वालों को बताना चाहिए कि वे कौन सी परिस्थियाँ थीं जो करोड़ों लोगों कि भावनाओं से अधिक कीमती थीं? गांधी-इरविन समझौता क्या देश को स्वतन्त्रता दे रहा था जिसकी कोई भी कीमत जायज थी? बात-बात पर अनशन करके अपनी बात मनवाने वाले गांधीजी को इस विषय पर अनशन की आवश्यकता क्यों नहीं लगी? जब भगत सिंह जेल मे आमरण अनशन कर रहे थे तब गांधीजी उनसे एक बार भी मिलने भी नहीं जा सके?? इन सच्चाईयों को नकारा जाना वैसे ही कठिन है जैसे कि खिलाफत आंदोलन का समर्थन करना, सरदार पटेल के सामने बुरी तरह हारने के बाद भी नेहरू की जिद पर नेहरू प्रधानमंत्री बनाने का पक्ष लेना, विभाजन को स्वीकार करना आदि-आदि भूलों को नकारा जाना!! हम सभी जानते हैं कि गांधीजी के आगे नेहरू का कोई कद न देश मे था और न कॉंग्रेस मे ही, जहां उन्हें तगड़ी हार मिली थी किन्तु गांधी जी द्वारा नेहरू को बिगड़े बच्चे कि तरह शह देना निश्चित रूप से घातक था उसके पीछे अब कारण ढूंढने से बहुत लाभ नहीं होने वाला! गांधी जी एक महान व्यक्तित्व अवश्य थे किन्तु महान व्यक्ति की महानताओं के पर्दे में महान भूलों को नहीं छुपाया जाना चाहिए क्योंकि इतिहास का उद्देश्य महानताओं से पूर्व भूलों को समझने व उनसे सीखने का है क्योंकि इतिहास स्वयं को पुनः दोहराता है।
यहाँ मोहनदास करमचंद्र गाँधी को महिमा मंडित करने का विरोध किया जा रहा है.देश को आजादी सिर्फ उनकी बदौलत मिली यह कांग्रेसी इतिहास है.इस झूठ के चक्कर में वह स्वातंत्रवीर भुला दिए गए जिन्होंने देश को आजाद करने के लिए हँसते हँसते फांसी का फंदा चूम लिया.अंग्रेजो से वार्ता कर महलों में जेल बिताने वाले छद्दम नायक बन गए.
 आजादी का इतिहास कांग्रेसी भाटों के अलावा भी अन्य लोगों ने लिखा है.आप विद्वान हैं.जरूर अध्ययन किया होगा अगर नहीं किया तो बताएं मैं कुछ अंश पेश करूँ
गाँधी जी और दीगर स्वंत्रता संग्राम सेनानियों में यही अंतर था जो आज के सोनिया गाँधी ,गाँधी राहुल और दूसरे कांग्रेसी नेताओं में है.भले ही उन्हें बोलना तक न आये मंच में दूसरे का लिखा भाषण पढ़ें.संसद में मुंह तक न खुले देश के भाग्यविधाता यही माँ-बेटे की जोड़ी है
जिन लोगों ने देश की स्वतन्त्रता के लिए अपना सर्वस्व यहाँ तक कि प्राण तक न्यौछावर कर दिया, हम लोगों में अधिकतर लोग उनके विषय में, दुर्भाग्य से, बहुत कम जानते हैं। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस भी उन महान सच्चे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों में से एक हैं जिनके बलिदान का इस देश में सही आकलन नहीं हुआ। देखा जाए तो अपनी महान हस्तियों के विषय में न जानने या बहुत कम जानने के पीछे दोष हमारा नहीं बल्कि हमारी शिक्षा का है जिसने हमारे भीतर ऐसा संस्कार ही उत्पन्न नहीं होने दिया कि हम उनके विषय में जानने का कभी प्रयास करें। होश सम्भालने बाद से ही जो हमें "महात्मा गांधी की जय", "चाचा नेहरू जिन्दाबाद" जैसे नारे लगवाए गए हैं उनसे हमारे भीतर गहरे तक पैठ गया है कि देश को स्वतन्त्रता सिर्फ गांधी जी और नेहरू जी के कारण ही मिली। हमारे भीतर की इस भावना ने अन्य सच्चे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों को उनकी अपेक्षा गौण बना कर रख दिया। हमारे समय में तो स्कूल की पाठ्य-पुस्तकों में यदा-कदा "खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी...", "अमर शहीद भगत सिंह" जैसे पाठ होते भी थे किन्तु आज वह भी लुप्त हो गया है। ऐसी शिक्षा से कैसे जगेगी भावना अपने महान हस्तियों के बारे में जानने की?
कुछ वर्ष पूर्व जब अपने विराट योग शिविरों में स्वामी रामदेवजी ने यह प्रश्न पूछना शुरु किया कि हमको क्या अधिकार है कि हम, ‘‘दे दी तुने आज़ादी हमे बिना खड्ग बिना ढ़ाल’’ जैसे पूर्णतः असत्य गीतों को आलापकर हमारे वीरों के बलिदान का अपमान करें, तब इसे गांधी के विरुद्ध बात कहकर उनकी आलोचना की गई। पर क्या वर्तमान पीढ़ि को अधिकार नहीं हे कि वे इतिहास का वस्तुनिष्ठ विश्लेषण समस्त उपलब्ध अभिलेखों के आधार पर करें? क्या आज के दिन यह प्रश्न नहीं पुछा जाना चाहिये कि गीता का प्रतिदिन पाठ करने वाले हे महात्मा, अंधे धृतराष्ट्र के समान किस मोह में पड़कर तूने काँग्रेस अधिवेशन में लोकतान्त्रिक विधि से निर्वाचित सुभाषचन्द्र बोस को हटाकर अपने चमचे पट्टाभिसीतारामय्या को अध्यक्ष बनाया था? हम में से कम ही लोग इस ऐतिहासिक तथ्य से अवगत होंगे कि इसी विराट हृदय के योद्धा ने इस अन्याय के बाद भी मोहनदास करमचंद गांधी को राष्ट्रपिता की उपाधि दी। नेताजी का प्रशंसा की अतिशयोक्ति में कहा गया विशेषण आज ऐसा चिपक गया है कि हम गांधी के निर्णयों का विश्लेषण ही नहीं करना चाहते। ऐसा करने का नाम लेना भी मानों घोर अपराध है
पर 1947 में भारत के स्वतंत्र होने के महत्वपूर्ण अध्याय का तो विश्लेषण करना ही होगा आधुनिक भारत के निर्विवाद रुप से सबसे सशक्त इतिहासकार आर सी मजुमदार ने इस पूरी घटना के बारे में स्पष्टता से लिखा है। अहिंसा, ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के माध्यम से गांधी को भारत की स्वतंत्रता पूरा श्रेय देनेवाले इतिहास को रोज रोज पढ़नेवाले और ‘दे दी हमें . . .’ के तरानों को निर्लज्जता से दोहरानेवाले भारतवासी इस ऐतिहासिक सच्चाई को अवश्य पढ़े।
Majumdar, R.C., Three Phases of India’s Struggle for Freedom, Bombay, Bharatiya Vidya Bhavan, 1967, pp. 58-59. There is, however, no basis for the claim that the Civil Disobedience Movement directly led to independence. The campaigns of Gandhi … came to an ignoble end about fourteen years before India achieved independence…. During the First World War the Indian revolutionaries sought to take advantage of German help in the shape of war materials to free the country by armed revolt. But the attempt did not succeed. During the Second World War Subhas Bose followed the same method and created the INA. In spite of brilliant planning and initial success, the violent campaigns of Subhas Bose failed…. The Battles for India’s freedom were also being fought against Britain, though indirectly, by Hitler in Europe and Japan in Asia. None of these scored direct success, but few would deny that it was the cumulative effect of all the three that brought freedom to India. In particular, the revelations made by the INA trial, and the reaction it produced in India, made it quite plain to the British, already exhausted by the war, that they could no longer depend upon the loyalty of the sepoys for maintaining their authority in India. This had probably the greatest influence upon their final decision to quit India.
 अंतिम पंक्ति में वे स्पष्ट लिखते है कि आज़ाद हिन्द सेना के वीरों के उपर चलाये गये देशद्रोह के मुकदमें में उजागर तथ्यों व उनपर पूरे देश में उठी प्रतिक्रियाओं के कारण द्वितीय महायुद्ध में क्षीण हुए ब्रिटिश साम्राज्य का भारत में टिका रहना असम्भव था। वे भारत में उनकी सेना के सिपाहियों पर विश्वास नहीं कर सकते थे। इस बात का भारत छोड़ने के उनके अंतिम निर्णय पर सर्वाधिक प्रभाव था
नेताजी भारत छोड़कर विदेश जाने से पूर्व रत्नागिरी में स्थानबद्ध सावरकर से मिलने गये थे। सावरकर ने उन्हें द्वितीय महायुद्ध के समय विदेश में जाकर सेना गठित करने का सुझाव दिया। योरोप के क्रांतिकारियों से अपने सम्पर्क भी उन्होंने नेताजी को दिये। इन्हीं में से एक की सहायता से नेताजी अफगानिस्तान मार्ग से योरोप पहुँचे। सावरकर की योजना का दूसरा अंग था- ब्रिटिश सेना का हिन्दवीकरण अर्थात हिन्दूओं क सैनिकीकरण। कुछ वर्ष पूर्व अंडमान से सावरकर के नाम पट्ट को हटाने वाले देशद्रोही नेता सावरकर के जिस पत्र का हवाला देकर उन्हें अंग्रजों का एजण्ट कहते थे वही पत्र सावरकर की चाणक्य नीति का परिचायक है। सावरकर ने अंग्रेजों को इस बात के लिये अनुमति मांगी कि वे देशभर घूमघूम कर युवाओं को सेना में भरती होने का आवाहन करना चाहते है। महायुद्ध के लिये सेना की मांग के चलते सावरकर को स्थानबद्धता से मुक्त किया गया। सावरकर ने देशभर में सभायें कर हिन्दू युवाओं से सेना में भरती होने को कहा। एक अनुमान के अनुसार उनके आह्वान के प्रत्यूत्तर के रूप में 6 लाख से अधिक हिन्दू सेना में भरती हूए। एक साथी के शंका करने पर सावरकर ने उत्तर दिया कि 20 साल पूर्व जिस ब्रिटिश शासन ने हमारे शस्त्र छीने थे वह आज स्वयं हमें शस्त्र देने को तत्पर है। एक बार हमारे युवाओं को शस्त्रबद्ध हो जाने दों। समय आने पर वे तय करेंगे कि इसे किस दिशा में चलाना ह
योजना यह थी कि बाहर से सुभाष की आज़ाद हिन्द सेना चलो दिल्ली के अभियान को छेड़ेगी और जब उनसे लड़ने के लिये अंग्रेज भारतीय सेना के भेजेंगे तो यह सावरकरी युवक विद्रोह कर देंगे। हिरोशिमा व नागासाकी पर हुए अमानवीय आण्विक हमले के कारण जापान के असमय युद्धविराम कर देने से यह योजना इस रूप में पूण नही हो सकीं। किन्तु भारत के स्वतन्त्रता अधिनियम को ब्रिटिश पार्लियामेण्ट में प्रस्तुत करते समय प्रधानमन्त्री क्लेमण्ट एटली द्वारा दिये कारण इस योजना की सफलता को स्पष्ट करते है। उन्होंने अपनी असमर्थता में सेना के विद्रोह की बात को पूर्ण स्पष्टता से कहा है। गांधी के ‘भारत छोड़ो’ अथवा सविनय आज्ञाभंग का उसमें कतई उल्लेख नहीं मिलता। आज़ाद हिन्द सेना का भय व भारतीय सेना पर अविश्वास के अलावा बाकि कारण केवल दिखावटी सिद्धान्त मात्र है
 कलकत्ता उच्च न्यायालय के पुर्व मुख्य न्यायाधीश पी वी चक्रवर्ति के 30 मार्च 1976 को लिखे पत्र से स्पष्ट है कि एटली ने उन्हें साफ शब्दों में भारत की स्वतन्त्रता के समय ब्रिटिश सोच के बारे में बताया था।

माननीय न्यायमुर्ति के अनुसार पूर्व प्रधानमन्त्री एटलीने दो बाते बिलकुल स्पष्टता से कही है – 1. गांधी का असहयोग व सविनय आज्ञाभंग का आंदोलन तो कबका समाप्त हो गया था। स्पष्ट प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा कि उसका प्रभाव ‘नहीं के बराबर’ था। 2. भारत छोड़ने की जल्दबाजी के मुख्य कारणों में सुभाष जी की आज़ाद हिन्द सेना और भारतीय शाही नौसेना में विद्रोह से उपजे अविश्वास को गिनाया..
 अब इन तथ्यों पर चर्चा करने का समय आ गया है। केवल स्वतन्त्रता के श्रेय की बात नहीं, भारत के खोये आत्मविश्वास को पुनः पाने की बात है। कब तक भीरु बनकर मार खाने के तराने गर्व से गाते रहेंगे? ? अरे क्या किसी ने भीक्षा में दी है ये स्वतन्त्रता?

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