Sunday, January 13, 2013

राजपूत एवं हुन


राजपूत एवं हुन :


एतिहासिक विषयो की समिक्षा करना एक महान अनुभव है और उसमे भी अगर भारतभूमि के इतिहास की बात आती है तो बात ही कुछ और.

हिंदू इतिहास में अपने पराक्रम,संघर्ष और विजयी शृंखलाओ से अपना एक युग बनानेवाले राजपूत और उनकी उत्पत्ति के विषय में अनेक मत्प्रवाह आते है,खासकर जब राजपूतो के उत्पत्ति के अनुमान में जनरल टोड से लेकर अधिकाँश इतिहासकार राजपूतो को " हुन " लोगो के वंशज मानते है !
उनके इस मत से तो स्वयं हम भी एकमत नहीं परन्तु फिरभी जब हुनो का गहराई से अध्ययन किया तो उनके विषय में थोडा बोहत जनमानस को बताने की इच्छा प्रबल हुयी ,प्रासंगिक हमारी यह पोस्ट -
कौन थे ये "हुन" ? कहासे आये थे ? क्या चाहते थे ?

प्राचीन युग में इसा की तीसरी और चौथी शताब्दी में सम्पूर्ण यूरोप ,चीन और मध्य एशिया में हुन नामकी इस महामारी का प्रकोप छाया हुआ था.
हां ,इसे महामारी ही कहना चाहए ,क्योंकि हुन और उनके आक्रमण होते ही ऐसे थे की जैसे कोई संक्रामक रोग मनुष्य के शारीर को झकझोर के रख दे वैसे ही हुनो के आक्रमण किसी भी राष्ट्र की संस्कृति और समाज का भयानक विध्वंस कर डालते थे .

सिर्फ पुरुष ही नहीं औरतो से लेकर बच्चो तक सारे के सारे घोडो पर सवार और शस्त्र्कुशल हुन चीत्कार करते हुए गावो ,नगरों में हडकंप मचाते थे ,उनका सबसे प्रभावशाली बल था उनकी संख्या . जहा हजारों के आक्रमण की अपेक्षा करो वहा लाखो हुन दिखाई देते .युद्ध के समय आक्रमण करती हुयी हुनो की सेनाए किसी सागर के समान प्रतीत होती .

हुनो से ज्यादा लोगो को हुनो के विध्वंस का डर था क्योंकि अपने जीते हुए प्रदेशो पर वे अनन्वित अत्याचार करते . वहाके धार्मिक स्थल,शालाए घर, गाव ,खेत इनको उजाड़ते हुए अनगिनत लोगो की कत्तल करते हुए उनके कटे हुए सरो में मदिरा भर आर पिटे हुए हुन अपना जयोत्सव मनाया करते थे .इसीलिए उनके आक्रमण के डर से ही कई शक्तिशाली राज्यों की सेनाए पहले ही अपना मनोबल खो देती और परिणामस्वरूप हुनो के ग्रास बनती .

हुनोद्वारा यूरोप और मध्य एशिया का विध्वंश :

वैसे ध्न्यात साधनों से हुनो उगम चीन के आसपास के प्रदेशो के कबीलो में बताया जाता है .चीन के नजदीक होने की वजह से हुनो के आक्रमण चीन पर सबसे पहले होना शुरुवात हुए .जमींन,धन और सत्ता, साम्राज्य की लालस में हुनो ने चीन में रक्त की नदिया बहा डाली उनके इस विद्ध्वंस से तंग आकार चीन के राजा ने अपने प्रदेश की रक्षा हेतु एक बोहत लंबी दिवार बना दी . यही है वो चीन की लंबी दिवार , जो की हुन और उनके आक्रमण के डर एक मूर्तिमंत स्वरुप ही है .

चीन के बाद हुनो की बड़े बड़े ढेर सारे दल मध्य एशिया में छोटे बड़े देशो में उत्पात मचाने लगे उन्ही में से कुछ दलों को संघटित करके हुनो के "अतीला" नामक सेनापति ने यूरोप की तरफ आक्रमण किया ,जिसमे सबसे पहले भक्ष्य बने यूरोपियन रशिया पर अनेक अलग अलग मार्गो से हुनो के झुण्ड के झुण्ड जा टकराए .पाठशालाए ,नगर ,गाव ,चर्च सब जलाकर ख़ाक करती हुयी हुन सेनाए रशिया को टोड मरोडकर पोलैंड पर जा गिरी जहा उस से आगे के ' गाथ ' लोगो का उन्होंने पराजित किया .आगे बलशाली रोमन सैनिको के सेनाओ पर सेनाओ का हुनो ने बुरी तरह से धुवा उडाया .
हुनो के आक्रमणों में पराक्रम से ज्यादा क्रूरता का ही दर्शन होता था जिसके आगे सम्पूर्ण यूरोप पराजित होता चला गया हुनो ने सम्पूर्ण यूरोप को रक्त्स्नान करवा डाला .....

हुनो की इस विध्वंसकारी आक्रमणों की जानकारी गिबन के " dicine and fall of Roman Empire" नामक ग्रन्थ में विस्तृत मिलती है .
आज भी यूरोप किसी गाली देने के लिए हुन इस शब्द का उपयोग किया जाता है जिसका अर्थ होते है - "पिशाच"

इसप्रकार रशिया और यूरोप को चकनाचूर करती हुआ हुनो का सेनासमुद्र आर्यावर्त की और चल पड़ा .
जिसप्रकार यूरोप,चीन और मध्य आशिया का विध्वंस कर डाला ठिक उसी प्रकार भारत को बड़ी आसानी से रुंध डालने की मह्त्वाकंषा से हुन भारत के गांधार प्रदेश पर टूट पड़े .....

.....परन्तु उस समय भरतखंड में शस्त्रों को त्यागकर अपने साम्राज्य को शत्रुओ के हाथो सौप देने वाले ,अहिंसा के मनोरोग से पीड़ित बौद्ध धर्म के अनुयायी सम्राट अशोक का नहीं बल्कि शस्त्रों की देवी माँ चामुंडा की आराधना करने वाले सम्राट विक्रमादित्य के वीर पुत्र सम्राट कुमार गुप्त का शासन था !!
कुमारगुप्त अत्यंत दूरदृष्टि रखने वाला राजा था, विश्व में होते हुनो के उत्पात का प्रकोप एक दीन भारत पर भी होंगा ये उसे ध्न्यात था और इसीलिए अपनी सीमाओ की रक्षा करने के लिए उसने अपने पास विशाल सेना पहले से तैनात रखी थी.

हुनोका भारतपर आक्रमण -

हवा के वेग से हुनो की फौजे चारों दिशाओ से गांधार प्रांत को रोंधते हुए आगे बढ़ी भी नहीं थी की गुप्त साम्राज्य की सीमा पर ही हुन और कुमारगुप्त की सेनाओ में धुमश्च्करी शुरू हो गयी . हुन सेना का आधारस्तंभ उनकी अनगिनत संख्या हुआ करता था ,जिस आधारस्तंभ को गिराने में ज्यादा समय नहीं लगा और शुरुवात के ही कुछ दिनों में कुमारगुप्त की विशाल,अत्याधुनिक शस्त्रों से सुसज्य ,शिस्त्बध्य सेना ने हुनो की सहस्त्रावधि सेना को मार गिराया . कई महीनो तक चले हुए इस युद्ध में भीषण हानि होने के कारण हुन वापस लौर गए और कुमारगुप्त की विजय हुयी .
कुमारगुप्त हाथो मिली करारी मात से हुनो ने आनेवाले ४० साल तक गुप्त साम्राज्य की सीमाओ के आसपास भी कदम नहीं रखा !!
हुनोपर मिली इस जय के लिए कुमारगुप्त ने अपने पुत्र स्कंदगुप्त का गौरव किया और इस विजय के आनंद में एक महान अश्वमेध यग्य का आयोजन हुआ.
इसप्रकार कुमारगुप्त ने हुनो को पराजित किया ,कालांतर से कुमारगुप्त की सन ४५५ में मृत्यु हुयी और उसका पुत्र स्कंदगुप्त समग्र आर्यावर्त के एक्छत्री हिंदू साम्राज्य का सम्राट हुआ !

हुनोका भारतपर पुनः आक्रमण -

ऊपर हमने बताया की हुनो ने उनके देश से बाहर निकल कर आशिया और यूरोप पर धावा बोल दिया था ,जिसमे उनके एक सेनानायक ' आतिला ' के नेतृत्व में उनका एक संघ यूरोप में उत्पात मचा रहा था, ठीक उसी वक्त हुनो की सामूहिक सेना का एक दूसरा संघ मध्य आशिया में अपने सेनानायक ' खिंखिल ' के नेतृत्व में अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहा था .जब हुनो की आर्यावर्त के गांधार प्रांत में बुरी तरह हार हुयी तब उस हार का बदला लेने ३०-४० वर्षों बाद खिंखील ने आर्यावर्त में अपना साम्राज्य करने के उद्देश एक व्यापक आक्रमण किया ,ये घटना समुद्रगुप्त के समारोप्काल की है !

वीर शिरोमणि सम्राट स्कंदगुप्त -

हुनो ने गांधार पंजाब सिंध के सीमावर्ती प्रदेश पर तैनात स्कंदगुप्त के सेना का प्रथम वार में ही धुवा उडाना शुरुवात कर दिया ,इसबार हुन पहले से कई गुना सेना बटोरकर आये थे ,उनका ये दुसरा आक्रमण पहले से कई ज्यादा प्रभावशाली था उसका उचित उत्तर देने और अपनी सेना का मनोबल बढाने वृद्ध सम्राट स्वयं पंजाब प्रांत में अपने सेना के साथ उस का हुनो के विरुद्ध नेतृत्व करने गया ! कुछ महीनो बाद उसे पता भी चला था की उसके सौतेले भाई ने विद्रोह कर दिया है और वो स्वयं सम्राट बन ना चाहता है पर फीरभी समुद्रगुप्त अपना सिंहासन बचाने वापस नहीं गया क्योंकि स्कंदगुप्त के लिए उसके सिंहासन से ज्यादा महत्वपूर्ण हिंदू राष्ट्र की रक्षा थी !! ऐसे ही युद्ध करते करते ,युद्ध शिबिर में ही स्कंदगुप्त की सन ४७१ में मृत्यु हो गयी .

हुनो की विजयी दौड -

स्कंदगुप्त की मृत्यु के बाद उसके नीच सौतेले भाई ने सिंहासन पर अपना अधिकार जमाया .स्त्रियों के संग विलास में डूबे रहनेवाले इस मुर्ख राजा में ना तो युद्ध कौशल्या या राजनीति का ज्ञान था और ना ही धर्मपरायणता और राष्ट्रभक्ति थी . स्कंदगुप्त की मृत्यु के तुरंत बाद इरान के राजा फिरोज को मारकर वहासे लौटी हुयी हुन सेना भारत पर आक्रमण करती हुयी हुन सेना से जा मिली ,अचानक बढे हुए इस सैन्यबल के साथ हुनो ने भारत की सीमाओं को तोड़कर पंजाब,गांधार,सिंध ,कश्मीर को रोंधते हुए मालवा पर कुच किया.सन ५११ में उज्जयिनी नगर के हाथ आते ही भारत के महत्वपूर्ण प्रान्तों पर हुनो का वर्च्स्वा हो गया हुनो की इस विजयी दौड का श्री जाता है उनके कर्तुत्ववान सेनानायक खिंखिल के अनुयायी "तोरमाण" को !

तोरमाण के बाद उसका महत्वाकांशी पुत्र "मिहिरगूल" भारत के हुनो ने जीते हुए प्रदेशो का राजा बना !!

हुनो की वैदिक हिन्दुधर्म के प्रति आसक्ति और हिन्दुधर्म का सामूहिक स्वीकार :

और इस प्रकार पंजाब,गांधार,मालवा आदि प्रदेश पर हुनो का राज चलने लगा .

जबसे हुनो ने भारत में अपने कदम रखे तबसे ही उन्हें यहाके वैदिक हिंदू धर्म के प्रति आसक्ति थी .हुन बौद्ध धर्मियो का द्वेष करते थे उनकी अत्याधिक अहिंसा की उन्हें चिड थी .कालान्तर में हुनो ने हिंदू धर्म का स्वीकार किया ,उसे खुद होकर अपनाया.उनका राजा मिहिरगूल भगवान शिव की कट्टर आराधना करता था .युद्ध की देवता ये उपाधि देकर समूचे हुन भगवान शिव को अपने कुलदेवता मानकर " शैव " बने उन्होंने अनेक मंदिरों का भी निर्माण किया !हुन पहले से ही उग्र स्वभाव के थे हिंदू धर्म को अपनाकर उन्होंने अपने आप को महान समझा और इस भरतखंड के राजा होने का सिर्फ उन्ही को अधिकार है ये कहकर हुन अपना गौरव खुद ही करने लगे

उस समय बौद्ध धर्मियो में राष्ट्र के प्रति उनकी पारम्पारिक द्रोह्भावना तीव्र हो चली थी ठिक उसी वक्त हिंदुत्व और हिंदू देवी देवताओ के प्रति उनकी विरोधी विचारधारा का पता लगते ही उग्र स्वभाव के मिहिरगूल ने बौद्ध स्तूपों को नष्ट करना और बौद्धों के सामूहिक हत्यांसत्र का आरम्भ कर दिया जो की दीर्घकाल तक चलता रहा

मिहिरगूल की उज्जयिनी से पराजय और और कश्मीर तथा पंजाब ,सिंध की और वापसी -

भले ही हिंदुत्व का हुनो को अभिमान हो ,भले ही हिंदूद्रोही बौद्ध सम्रदाय के विरुद्ध हुनो के मन में द्वेष को पर फीरभी हुन थे तो विदेशी ही इसलिए उनके विरुद्ध मालवा के ही एक योद्धा राजा यशोधरमा ने मगध के बालादित्य और कुछ हिंदू राजाओ को एकत्रित कर के मिहिरगूल के विरुद्ध सामूहिक लढाई छेड़ दी ,उज्जैन के निकट मंदसौर में हुनो की पराजय हुयी ,मीहीरगूल स्वयं पकड़ा गया परन्तु उसकी शिव भक्ति के कारण उसे ना मारते हुए यशोधर्मा ने छोड़ दिया !
वहासे मिहिरगुल कश्मीर के पास के जीते हुए हुन्प्रदेश में गया जहा उसने फीरसे अपनी सेना का संचय किया बादमे कश्मीर ,पंजाब और गांधार प्रान्तों में बसकर उसने अपना शेष जीवन काटा ! अपने सम्पूर्ण जीवन में मिहिरगुल ने उसके अधिकार क्षेत्रो में आनेवाले सभी बौद्ध स्तूपों को जमीनदोस्त करते हुए लाखो बौद्धों का वध कर डाला !

दीर्घकाल तक राज करने के बाद मिहिरगुल की जब बुढापे से मृत्यु हुई तब बौद्ध धर्मियोने अपने धर्मग्रंथो में उसे राक्षस की उपाधि देते हुए उसकी मृत्यु को 'बौद्ध धर्म का श्राप " कहकर उस से इस प्रकार बदला लिया (अहिंसा के मनोरोग से पीड़ित बौद्धों से मै ऐसे ही बदले की आशा करता हू )

;;;;;;तो इसप्रकार मिहिरगुल की मृत्यु के बाद हुन पूर्ण रूप से हिन्दुओ में मिल गए ,इस प्रकार समा गए की उन्होंने अपनी पहले की पहचान का कोई चिन्ह नहीं छोड़ा ! उनकी विध्वंसक वृत्ति हिंदू धर्म में आने के बाद अच्छी प्रकार शांत होकर विराश्री में बदल गयी ! उनकी पह्चान इसलिए खत्म हुयी क्योंकि वे स्वयं ही अपने आप को हुन कहलवाना नहीं चाहते थे उन्होंने हिंदू धर्म को न की सिर्फ अपनाया था बल्कि वे उसे अपना अत्याधिक गौरव मान ते थे ! आगे के काल में हुन शैव अर्थात रूद्र देवता के उपासक बनकर प्रसिद्द हुए और हिंदू समाज में इस प्रकार मिश्रित हो गए की उनके स्वतंत्र अस्तित्व कोई पता ना चला !

उसके बाद इसा की छटवी शताब्दी में इतिहास के पटल पर राजस्थान ,पंजाब ,गुजरात ,मालवा(वायव्य और मध्य भारत)राजपूतो का प्रेरणादायी राजनैतिक,भौगोलिक,सामरिक और सांस्कृतिक उथ्थान हुआ' ' ' ' ' 'राजपूत जो की रुद्र्देवता (भगवान शिव,एकलिंग जी) के उपासक थे !!!!


लेखन -
ठाकुर कुलदीप सिंह

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